शकुंतला देवी से परफ़ेक्ट पत्नी, परफ़ेक्ट माँ की एक्सपेक्टेशन रखने वाले वही हैं जो कहते हैं, "पहले गृहस्थी संभाल लो, फिर जो मन आए करो"। आप ये देख रहे हैं कि शकुंतला देवी ने अपनी बेटी के साथ ग़लत किया, अपने पति के साथ ग़लत किया, लेकिन आपको ये नहीं दिख रहा कि उनका बचपन कैसा था? क्या उन्हें बचपन मिला। वे अलग थीं इसलिए तो वे शकुंतला देवी बनीं ना। नॉर्मल ही होतीं तो रोटी-सब्जी बना रही होतीं। और पर्सनल लाइफ़ के फेलियर्स भी उन्होंने स्वीकारे, अपनी ग़लती सुधारी।
क़माल है ना कि एक स्त्री यदि अपने बच्चे पर अधिकार जमाए, तो वह व्यभिचारी लगने लगती है लेकिन बच्चा सिर्फ पिता के नाम से जाना जाएगा इस भेदभाव को सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है।
ऐसा तो था नहीं कि शकुंतला देवी अपनी बेटी का जीवन बर्बाद करना चाहती थीं। जिस दिन बेटी ने कहा कि मैं अपना बिज़निस शुरू करना चाहती हूँ उस दिन उन्हें अपनी बेटी के स्वतंत्र अस्तित्व बनाने पर गर्व हुआ। जिसके लिए उन्होंने पैसे की परवाह नहीं की। एक औरत जिसने बचपन से लेकर अंत तक अपने माता-पिता का पालन-पोषण किया, जिसे बचपन मिला ही नहीं उसकी मनोस्थिति क्या सामान्य हो सकती है?
हम लोग कितने डबल स्टैण्डर्ड वाले हैं। एक तरफ़ हम कहते हैं कि औरत आगे बढ़े लेकिन फ़िल्म में हमें सबसे ज़्यादा पसंद वो आएगा जब वही जीनियस औरत अपनी बेटी के लिए अपना काम छोड़ देती है। शकुंतला देवी भगवान नहीं थीं, उनमें अहं आया, उन्होंने बाद में अपने पति के बारे में झूठी बात भी बोली जो ग़लती उन्होंने स्वीकारी भी। लेकिन क्या उन्होंने यह ग़लत कहा कि
"उनकी जगह यदि उनके पति मैथेमेटिक्स के जीनियस होते तो दुनिया उनसे उम्मीद करती कि वे बच्चे को लेकर पति के साथ-साथ घूमें" तब यदि वे भारत में रहकर नौकरी करने की ज़िद करतीं तो लोग कहते "कैसी औरत है, चंद रुपयों के लिए इसने पति का साथ छोड़ दिया।"
शकुंतला देवी का अपनी बेटी के प्रति पज़ेसिव नेचर दिखाया है। हर माँ का होता है। क्या वे बच्ची को मारती-पीटती थीं? बल्कि अपने साथ दुनिया घुमाकर वे उसे एक अलग माहौल देना चाहती थीं। वे अपनी तरफ़ से बस इतना चाहती थीं कि उनकी बेटी उस पितृसत्तात्मक माहौल से बचे जिसकी वजह से उनकी माँ मुँह में ज़ुबान होते हुए भी गूँगी बनी रहीं। ये सच है कि ऐसा करने में उनसे यह अनदेखी हुई कि बेटी की ख़्वाहिश क्या है? वे ख़ुद आज़ाद रहना चाहती थीं लेकिन अनजाने-अनचाहे उन्होंने बेटी को बाँध रखा था जिसका उन्हें बाद में अफ़सोस भी हुआ।
दुनिया में जितने भी जीनियस पुरुष हुए क्या सबकी पर्सनल लाइफ़ परफ़ेक्ट थीं? लेकिन यहाँ क्योंकि एक जीनियस महिला की कहानी है तो हमें उसका त्याग, तपस्या, ममता सब चाहिए। हम चाहते हैं औरत जीनियस तो बने लेकिन हमारी शर्तों पर। आप एक बार गूगल करिए और देखिए "फेलियर्स ऑफ फ़ेमस पीपल" आपको सिर्फ़ प्रोफेशनल लाइफ़ के फेलियर्स दिखाई देंगे। लेकिन यहाँ हमने प्रोफेशनल लाइफ की सिर्फ़ चकाचौंध दिखाई और सारा ठीकरा पर्सनल लाइफ़ पर फोड़ दिया।
फ़िल्म बनाने वालों ने अगर शकुंतला देवी के ज़मीनी स्ट्रगल दिखाने में फ़ोकस किया होता तो फ़िल्म बेहतर बनती। मुझे ठीक-ठीक लगी। अभी यह काफ़ी हद तक लोगों को उनके बारे में नकारात्मक सोचने की दिशा में ले जाती दिखती है। उन्हें शकुंतला देवी की क़्वालिटी, उनकी समस्याएँ दिखानी थीं, यहाँ तो उन्होंने ऐसे दिखाया जैसे शकुंतला देवी के लिए प्रसिद्धि हलुआ थी जिसे खाने में उन्हें बस चम्मच उठाने जितनी मेहनत करनी थी। अभी इस बात पर फ़ोकस ज़्यादा दिखता है कि उनकी ज़िंदगी में कितने मर्द आए। फ़ैमिली ड्रामा दिखाकर फ़िल्म और शकुंतला देवी दोनों ही कमज़ोर लगने लगते हैं।
~ Ankita Jain
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