अगर वो हादिसा फिर से हुआ तो मैं तेरे इश्क़ में फिर पड़ गया तो कि उस का रूठना भी लाज़मी है मना लूँगा अगर होगा ख़फ़ा तो मिरी उलझन सुलझती जा रही है दिखाया है तुम्ही ने रास्ता तो यक़ीनन राज़-ए-दिल मैं खोल दूँगा दिया अपना जो उस ने वास्ता तो चलो कुछ देर रो लें साथ मिल कर कोई लम्हा ख़ुशी का मिल गया तो तुझे महफ़ूज़ कर लूँ ज़ेहन-ओ-दिल में मिला है तू कहीं फिर खो गया तो नया रिश्ता निभाने की तलब में अगर टूटा पुराना राब्ता तो कलेजे से लगा कर रखते हम भी हमें वो राज़ अपने सौंपता तो 'नज़र' तुम ज़िंदगी समझे हो जिस को फ़क़त पानी का हो वो बुलबुला तो ~ नज़ीर नज़र
शकुंतला देवी से परफ़ेक्ट पत्नी, परफ़ेक्ट माँ की एक्सपेक्टेशन रखने वाले वही हैं जो कहते हैं, "पहले गृहस्थी संभाल लो, फिर जो मन आए करो"। आप ये देख रहे हैं कि शकुंतला देवी ने अपनी बेटी के साथ ग़लत किया, अपने पति के साथ ग़लत किया, लेकिन आपको ये नहीं दिख रहा कि उनका बचपन कैसा था? क्या उन्हें बचपन मिला। वे अलग थीं इसलिए तो वे शकुंतला देवी बनीं ना। नॉर्मल ही होतीं तो रोटी-सब्जी बना रही होतीं। और पर्सनल लाइफ़ के फेलियर्स भी उन्होंने स्वीकारे, अपनी ग़लती सुधारी। क़माल है ना कि एक स्त्री यदि अपने बच्चे पर अधिकार जमाए, तो वह व्यभिचारी लगने लगती है लेकिन बच्चा सिर्फ पिता के नाम से जाना जाएगा इस भेदभाव को सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है। ऐसा तो था नहीं कि शकुंतला देवी अपनी बेटी का जीवन बर्बाद करना चाहती थीं। जिस दिन बेटी ने कहा कि मैं अपना बिज़निस शुरू करना चाहती हूँ उस दिन उन्हें अपनी बेटी के स्वतंत्र अस्तित्व बनाने पर गर्व हुआ। जिसके लिए उन्होंने पैसे की परवाह नहीं की। एक औरत जिसने बचपन से लेकर अंत तक अपने माता-पिता का पालन-पोषण किया, जिसे बचपन मिला ही नहीं उसकी मनोस्थिति क्या सामान